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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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स्वतन्त्रता सुख से वञ्चित होकर बन्धन को प्राप्त होता है । इस प्रकार जितेन्द्रिय, विषय प्रमाद में प्रमत, जीवों के अनेक अपाय होते हैं । एक एक विषय के वशीभूत होकर जीव उपरोक्त रीति से विनाश को पाते हैं। तो फिर पांचों इन्द्रियों के विषय में प्रमादी जीवों के दुःखों का तो कहना ही क्या ?
विपयामक्त जीव विषय का उपभोग करके भी कभी तृप्त नहीं होता । विषय भोग से विषयेच्छा शान्त न होकर उसी प्रकार बढ़ती है जैसे अग्नि घी से । विपयासवत जीव के ऐहिक दुःख यहाँ प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं और परलोक में नरक तिर्यञ्च योनि में महा दुःख भोगने पड़ते हैं । इस लिए विषय प्रमाद से निवृत्त होने में ही श्रेय है ।
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(३) कषाय प्रमादः -- क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषाय का सेवन करना कषाय प्रमाद है । क्रोधादि का स्वरूप इस प्रकार है क्रोध-क्रोध शुभ परिणामों का नाश करता है । वह सर्व प्रथम अपने स्वामी को जलाता है और बाद में दूसरों को । क्रोध से विवेक दूर भागता है और उसका साथी अविवेक आकर जीव को कार्य में प्रवृत्त करता है । क्रोध सदाचार को दूर करता है और मनुष्य को दुराचार में के लिये प्रेरित करता है । क्रोध वह अग्नि है जो चिर काल से अभ्यस्त यम, नियम, तप आदि को क्षण भर में भस्म कर देती है । क्रोध के वश होकर द्वीयायन ऋषि ने स्वर्ग सरीखी सुन्दर द्वारिका नगरी को जला कर भस्म कर
प्रवृत्त होने