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श्री जैन सिद्धान्त बोल मंग्रह कर्म के दो भेदः-(१) घाती कर्म (२) अघाती कर्म
(१) सोपक्रम कर्म (२) निरुपक्रम कर्म घाती कर्म:-जो कर्म आत्मा के स्वाभाविक गुणों का घात करे वह घाती कर्म है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय
और अन्तराय ये चार घाती कर्म हैं। इनके नाश हुए विना केवल ज्ञान नहीं हो सकता।
(हरिभद्रीयाष्टक ३०) अघाती कर्म:-जो कर्म आत्मा के स्वाभाविक गुणों का घात
नहीं करते वे अघाती कर्म हैं । अघाती कर्मों का अमर आत्मा की वैभाविक प्रकृति, शरीर, इन्द्रिय, आयु आदि पर होता है । अघाती कर्म केवलज्ञान में बाधक नहीं होते। जब तक शरीर है तब तक अघाती कर्म भी जीव के साथ ही रहते हैं। वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चारों अघाती कर्म हैं।
(कम्मपयड़ि पृष्ठ ६ टीका) मोपक्रम कम:-जिम कर्म का फल उपदेश आदि से शान्त हो
जाय वह मोपक्रम कर्म है। निरूपक्रम कर्म:-जो कर्म बंध के अनुसार ही फल देता है वह निरुपक्रम कर्म है। जैसे निकाचित कर्म ।
(विपाक सूत्र अध्ययन ३) २८-मोहनीय कर्म की व्याख्या और भेदः-जो कर्म आत्मा की
हित और अहित पहचानने और तदनुसार आचरण करने करने की बुद्धि को मोहित (नष्ट) कर देता है । उसे मोह