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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला उपयोग भावेन्द्रियः-ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के क्षपोपशम
होने पर पदार्थों के जानने रूप आत्मा के व्यापार को
उपयोग भावेन्द्रिय कहते हैं। जैसे-कोई साधु मुनिराज द्रव्यानुयोग, चरितानुयोग, गणिता
नुयोग, धर्म कथानुयोग रूप चारों अनुयोगों के ज्ञाता हैं पर वे जिस समय द्रव्यानुयोग का व्याख्यान कर रहे हैं। उस समय उनमें द्रव्यानुयोग उपयोग रूप से विद्यमान है। एवं शेष अनुयोग लब्धि रूप से विद्यमान हैं।
(तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २) २६-बंधन की व्याख्या और भेदः-जिसके द्वारा कर्म और
आत्मा क्षीर नीर की तरह एक रूप हो जाते हैं उसे बंधन कहते हैं।
बंधन के दो भेदः-(१) राग बंधन (२) द्वेष बंधन । राग बंधन:-जिससे जीव अनुरक्त-आसक्त होता है उसे गग
बंधन कहते हैं । राग से होने वाले बंधन को गगबंधन कहते हैं।
(ठाणांग २ उद्देशा ४ सूत्र ६४) २७-कर्म की व्याख्या और भेदः-जीव के द्वारा मिथ्यात्व,
कषाय आदि हेतु से जो कार्मण वर्गणा ग्रहण की जाती है उसे कर्म कहते हैं। यह कार्मण वर्गणा एक प्रकार की अत्यन्त सूक्ष्म रज यानि पुद्गल स्कन्ध होती है। जिसे इन्द्रियों सूक्ष्मदर्शक यंत्र (माइक्रोस कोप) के द्वारा भी नहीं जान सकती हैं । सर्वज्ञ या परम अवधिज्ञानी ही उसे जान सकते हैं।