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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला २३८-भार प्रत्यवरोहणता विनय के चार प्रकार:(१) क्रोधादि वश गच्छ से बाहर जाने वाले शिष्य को मीठे
वचनों से समझा बुझा कर पुनः गच्छ में रखना। (२) अव्युत्पन्न एवं नव दीक्षित शिष्य को ज्ञानादि आचार तथा
भिदाचारी वगैरह का ज्ञान सिखाना। (३) साधर्मिक अर्थात् समान श्रद्धा एवं ममान ममाचारी वाले
ग्लान हों अथवा ऐसे ही गाढ़ागाढ़ी कारणों से आहारादि के विना दुःख पा रहे हों, उनके आहार आदि लाने, वैद्य से बताई हुई औपधि करने, उबटन करने, संथाग विछाने,
पडिलेहना करने आदि में यथाशक्ति तत्पर रहना । (४) साधर्मियों में परस्पर विरोध उत्पन्न होने पर राग द्वेप का
त्याग कर, किसी भी पक्ष का ग्रहण न करते हुए मध्यस्थ भाव से सम्यग न्याय संगत व्यवहार का पालन करते हुए उस विरोध के क्षमापन एवं उपशम के लिए सदैव उद्यत रहना और यह भावना करते रहना कि किसी प्रकार ये मेरे साधर्मिक बन्धु राग द्वेष, कलह एवं कपाय से रहित हों । इनमें परस्पर "तू तू, मैं मैं" न हों। ये संवर एवं समाधि की बहुलता वाले हों। अप्रमादी हों एवं संयम तथा तप से अपनी आत्मा को भावते हुए विचरें।
(दशा श्रुतस्कन्ध दशा ४) २३६-उपसर्ग चार:
(१) देव सम्बन्धी (२) मनुष्य सम्बन्धी