________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल मंग्रह
१७७ द्वितीय उद्देशकः वृक्ष के विकास के समान आध्यात्मिक मार्ग के
विकास की तुलना, धर्म से लेकर उसके अन्तिम परिणाम तक का दिग्दर्शन, विनय तथा अविनय के परिणाम ।
विनय के शत्रुओं का मार्मिक वर्णन। तृतीय उद्देशक:-पूज्यता की आवश्यकता है क्या ? आदर्श
पूज्यता कौन सी है ? पूज्यता के लिये आवश्यक गुण । विनीत साधक अपने मन, वचन और काया का कैसा उप
योग करे ? चतुर्थ उद्देशकः-समाधि की व्याख्या, और उसके चार माधन,
आदर्श ज्ञान, आदर्श विनय, आदर्श नप और आदर्श ग्राचार की आराधना किम प्रकार की जाय ? उनकी माधना में
आवश्यक जागृति । (१०) भिक्षु नामः
मचा त्याग भाव कब पैदा होता है ? कनक तथा कामिनी के त्यागी माधक की जवाबदारी, यति जीवन पालने की प्रतिज्ञाओं पर दृढ़ केसे रहा जाय ? त्याग का सम्बन्ध बाह्य वेश से नहीं किन्तु अात्म विकास के माथ है । आदर्श भिक्षु
की क्रियाएं। (११) रति वाक्य (प्रथम चूलिका ):
गृहस्थ जीवन की अपेक्षा साधु जीवन क्यों महत्वपूर्ण है ? भिक्षु परम पूज्य होने पर भी शासन के नियमों को पालने के लिये बाध्य है । वासना में संस्कारों का जीवन पर असर, संयम से चलित चित रूपी घोड़े को रोकने के