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________________ १५४ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (४) तपः--पूर्वोपार्जित कर्मों को क्षय करने वाला, बाह्य और आभ्यन्तर भेद वाला आत्मा का विशेष व्यापार तप कहलाता है। __ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ये चारों मिल कर ही मोक्ष का मार्ग है । पृथक पृथक नहीं । ज्ञान द्वारा आत्मा जीवादि तत्त्वों को जानता है । दर्शन द्वारा उन पर श्रद्धा करता है । चारित्र की सहायता से आते हुए नवीन कर्मों को रोकता है एवं तप द्वारा पूर्व संचित कर्मों का क्षय करता है। (उत्तराध्ययन अध्ययन २८) १६६-धर्म के चार प्रकार: (१) दान (२) शील । (३) तप (४) भावना (भाव)। जैसा कि सत्तरीसय ठाणावृत्ति ४१वें द्वार में कहा है:दाणं सीलं च तवो भावो, एवं चउन्विहो धम्मो । सव्व जिणेहिं भणिो , तहा दुहा सुयचारितेहिं ॥२६६।। (अभिधान राजेन्द्र कोष भाग ४ पृष्ठ २२८६) दान:-स्व और पर के उपकार के लिए अर्थी अर्थात् जरूरत वाले पुरुष को जो दिया जाता है । वह दान कहलाता है । अभयदान, सुपात्रदान, अनुकम्पा दान, ज्ञानदान आदि दान के अनेक भेद हैं । इनका पालन करना दान धर्म कहलाता है। (सूयागडांग श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन ६ गाथा २३) (अभिधान राजेन्द्र कोष भाग ४ पृष्ठ २४८९) (पंचाशक : वां पंचाशक गाथा ६)
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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