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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (४) तपः--पूर्वोपार्जित कर्मों को क्षय करने वाला, बाह्य और
आभ्यन्तर भेद वाला आत्मा का विशेष व्यापार तप कहलाता है। __ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ये चारों मिल कर ही मोक्ष का मार्ग है । पृथक पृथक नहीं । ज्ञान द्वारा आत्मा जीवादि तत्त्वों को जानता है । दर्शन द्वारा उन पर श्रद्धा करता है । चारित्र की सहायता से आते हुए नवीन कर्मों को रोकता है एवं तप द्वारा पूर्व संचित कर्मों का क्षय करता है।
(उत्तराध्ययन अध्ययन २८) १६६-धर्म के चार प्रकार:
(१) दान (२) शील । (३) तप (४) भावना (भाव)। जैसा कि सत्तरीसय ठाणावृत्ति ४१वें द्वार में कहा है:दाणं सीलं च तवो भावो, एवं चउन्विहो धम्मो । सव्व जिणेहिं भणिो , तहा दुहा सुयचारितेहिं ॥२६६।।
(अभिधान राजेन्द्र कोष भाग ४ पृष्ठ २२८६) दान:-स्व और पर के उपकार के लिए अर्थी अर्थात् जरूरत वाले
पुरुष को जो दिया जाता है । वह दान कहलाता है । अभयदान, सुपात्रदान, अनुकम्पा दान, ज्ञानदान आदि दान के अनेक भेद हैं । इनका पालन करना दान धर्म कहलाता है।
(सूयागडांग श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन ६ गाथा २३) (अभिधान राजेन्द्र कोष भाग ४ पृष्ठ २४८९)
(पंचाशक : वां पंचाशक गाथा ६)