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________________ २६६ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह अथवा:जिससे जीव सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र रूप मोक्ष मार्ग के प्रति उद्यम करने में शिथिलता करता है वह प्रमाद है। (४) कषायः-जो शुद्ध स्वरूप वाली आत्मा को कलुषित करते हैं। अर्थात् कर्म मल से मलीन करते हैं वे कषाय हैं । अथवाःकष अर्थात् कर्म या संसार की प्राप्ति या वृद्धि जिस से हो वह कषाय है। अथवा:कषाय मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला जीव का क्रोध, मान, माया लोभ रूप परिणाम कषाय कहलाता है। (५) योग:-मन,वचन,काया की शुभाशुभ प्रवृति को योग कहते हैं। ___ श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घाणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय इन पाँच इन्द्रियों को वश में न रख कर शब्द रूप, गन्ध, रस और स्पर्श विषयों में इन्हें स्वतन्त्र रखने से भी पांच आश्रव होते हैं। प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह ये पाँच भी आश्रव हैं। (ठाणांग ५ सूत्र ४१८ ) (समवायांग) २४०-दण्ड की व्याख्या और भेदः जिससे आत्मा व अन्य प्राणी दंडित हो अर्थात् उनकी
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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