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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
अथवा:जिससे जीव सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र रूप मोक्ष मार्ग के प्रति उद्यम करने में शिथिलता करता है
वह प्रमाद है। (४) कषायः-जो शुद्ध स्वरूप वाली आत्मा को कलुषित करते हैं। अर्थात् कर्म मल से मलीन करते हैं वे कषाय हैं ।
अथवाःकष अर्थात् कर्म या संसार की प्राप्ति या वृद्धि जिस से हो वह कषाय है।
अथवा:कषाय मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला जीव का क्रोध, मान, माया लोभ रूप परिणाम कषाय
कहलाता है। (५) योग:-मन,वचन,काया की शुभाशुभ प्रवृति को योग कहते हैं।
___ श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घाणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय इन पाँच इन्द्रियों को वश में न रख कर शब्द रूप, गन्ध, रस और स्पर्श विषयों में इन्हें स्वतन्त्र रखने से भी पांच आश्रव होते हैं।
प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह ये पाँच भी आश्रव हैं।
(ठाणांग ५ सूत्र ४१८ )
(समवायांग) २४०-दण्ड की व्याख्या और भेदः
जिससे आत्मा व अन्य प्राणी दंडित हो अर्थात् उनकी