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श्रो सेठिया जैन ग्रन्थमाला
२८६-पांच आश्रवः
जिनसे आत्मा में आठ प्रकार के कर्मों का प्रवेश होता है वह आश्रव है।
अथवा:जीव रूपी तालाब में कर्म रूप पानी का आना आश्रव है।
अथवा:जसे जल में रही हुई नौका (नाव) में छिद्रों द्वारा जल प्रवेश होता है । इसी प्रकार जीवों की पाँच इन्द्रिय, विषय, कषायादि रूप छिद्रों द्वारा कर्म रूप पानी का प्रवेश होता है । नाव में छिद्रों द्वारा पानी का प्रवेश होना द्रव्य आश्रव है और जीव में विषय कपायादि से कर्मों का प्रवेश होना
भावाश्रव कहा जाता है। आश्रव के पांच भेदः
(१) मिथ्यात्व (२) अविति। (३) प्रमाद
(४) कषाय ।
(५) योग। (१) मिथ्यात्वः-मोहवश तत्त्वार्थ में श्रद्धा न होना या विपरीत
श्रद्धा होना मिथ्यात्व कहा जाता है। (२) अविरतिः-प्राणातिपात आदि पाप से निवृत्त न होना
अविरति है। (३) प्रमादः-शुभ उपयोग के अभाव को या शुभ कार्य में यन,
उद्यम न करने को प्रमाद कहते हैं।