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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला २८८-मिथ्यात्व पाँच:
मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से विपरीत श्रद्धान रूप जीव के परिणाम को मिथ्यात्व कहते हैं। मिथ्यात्व के पांच भेदः
(१) आभिग्रहिक (२) अनाभिग्रहिक । (३) आभिनिवेशिक (४) सांशयिक ।
(५) अनाभोगिक । (१) आभिग्रहिक मिथ्यात्वः तत्त्व की परीक्षा किये विना ही
पक्षपात पूर्वक एक सिद्धान्त का आग्रह करना और अन्य
पक्ष का खण्डन करना आभिग्रहिक मिथ्यात्व है। (२) अनाभिग्रहिक मिथ्यात्वःगुण दोष की परीक्षा किये
विना ही सब पक्षों को बराबर समझना अनाभिग्रहिक
मिथ्यात्व है। (३) आभिनिवेशिक मिथ्यात्वः-अपने पक्ष को असत्य जानते
हुए भी उसकी स्थापना के लिए दुरभिनिवेश (दुराग्रह-हठ)
करना आभिनिवेशिक मिथ्यात्व है। (४) सांशयिक मिथ्यात्वः-इस स्वरूप वाला देव होगा या
अन्य स्वरूप का ? इसी तरह गुरु और धर्म के विषय में
संदेह शील बने रहना सांशयिक मिथ्यात्व है। (५) अनाभोगिक मिथ्यात्वः-विचार शून्य एकेन्द्रियादि तथा
विशेष ज्ञान विकल जीवों को जो मिथ्यात्व होता है । वह अनाभोगिक मिथ्यात्व कहा जाता है।
(धर्म संग्रह अधिकार २) (कर्म प्रन्थ भाग ४)