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[१०] "श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह" में 'बोल' शब्द साधारण पाठकों को एक देशीय सा प्रतीत होगा, किन्तु शास्त्रों में जहाँ स्थान शब्द है, खड़ी बोली और संस्कृत में जहां अङ्क या संख्या शब्द दिए जाते हैं. वहीं जैन परम्परा में "बोल' शब्द प्रचलित है । प्राकृत और संस्कृत न जानने वाले पाठक भी इससे हमारा उद्दिष्ट अभिप्राय सरलता से समझ सकेंगे। इसी लिए और शब्दों की अपेक्षा इसको विशेषता दी गई है। और इस ग्रन्थ में "बोल" शब्द का ही प्रयोग किया गया है।
इस ग्रन्थ को शुद्ध और प्रामाणिक बनाने के लिए भरसक कोशिश की गई है । फिर भी मानव सुलभ त्रुटियों का रह जाना सम्भव है । यदि सहृदय पाठक उन्हें मूचित करने की कृपा करेंगे तो आगामी संस्करण में सुधार ली जाएंगी। इसके लिए मैं उनका विशेष अनुगृहीत रहँगा। वूलन प्रेस बीकानेर
निवेदकःआपाढ़ शुक्ला ३, संवन १९६७ ना०८ जुलाई १६४० ई०
भैरोंदान सठिया
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