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श्री जैन सिद्धान्त बाल संग्रह
जन्म जरा एवं मरण रूपी जल से परिपूर्ण क्रोधादि कषाय रूप पाताल वाले, विविध दुःख रूपी नक्र मकर से भरे हुए, अज्ञान रूपी वायु से उठने वाली, संयोग वियोग रूप लहरों सहित इस अनादि अनन्त संसार सागर का चिन्तन करे । इस संसार सागर को तिराने में समर्थ, सम्यग्दर्शन रूपी मजबूत बन्धनों वाली, ज्ञान रूपी नाविक से चलाई जाने वाली चारित्र रूपी नौका है । संवर से निश्छिद्र, तप रूपी पवन से वेग को प्राप्त, वैराग्य मार्ग पर रही हुई, एवं
ध्यान रूपी तरंगों से न डिगने वाली बहुमूल्य शील रत्न से परिपूर्ण नौका पर चढ़ कर मुनि रूपी व्यापारी शीघ्र ही विना चिह्नों के निर्वाण रूपी नगर को पहुँच जाते हैं। वहाँ पर वे अक्षय, अव्याबाध, स्वाभाविक, निरुपम सुख पाते हैं। इत्यादि रूप से सम्पूर्ण जीवादि पदार्थों के विस्तार वाले, सब नय समूह रूप सिद्धान्तोक्त अर्थ के चिन्तन में मन को एकाग्र करना संस्थान विचय धर्मध्यान है ।
( ठाणांग ४ सूत्र २४७ ) ( आवश्यक अध्ययन ४ ) ( अभिधान राजेन्द्र कोष भाग ४ (पृष्ठ १६६६ से ६८ )
(२) निसर्ग रुचि
२२१ – धर्मध्यान के चार लिङ्ग:(१) आज्ञा रुचि । (३) सूत्ररुचि । (४) अवगादरुचि ( उपदेश रुचि) (१) आज्ञा रुचि: सूत्र में प्रतिपादित अर्थों पर रुचि धारण करना आज्ञा रुचि है ।