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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला जीव इन दोषों से अपनी आत्मा की रक्षा करने में सात्रधान रहता है एवं इससे दूर रहता हुआ आत्म कल्याण का साधन करता है। (३) विपाक विचय-शुद्ध आत्मा का स्वरूप ज्ञान दर्शन
सुख आदि रूप है । फिर भी कर्मवश उसके निज गुण दबे हुए हैं । एवं वह सांसारिक सुख दुःख के द्वन्द में रही हुई चार गतियों में भ्रमण कर रही है । संपति, विपति, संयोग, वियोग आदि से होने वाले मुख दुःख जीव के पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्म के ही फल हैं । आत्मा ही अपने कृत कर्मों से सुख दुःख पाता है । स्वोपार्जित कर्मों के सिवा और कोई भी आत्मा को सुख दुःख देने वाला नहीं है । आत्मा की भिन्न २ अवस्थाओं में कर्मों के भिन्न २ फल हैं । इस प्रकार कपाय एवं योग जनित शुभाशुभ कर्म प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध, प्रदेश बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता इत्यादि कर्म विषयक चिन्तन में मन को एकाग्र करना विपाक विचय धर्मध्यान है। (४) संस्थान विचय-धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य एवं उनकी पर्याय, जीव अजीव के आकार, उत्पाद, व्यय, धौव्य, लोक का स्वरूप, पृथ्वी, द्वीप, सागर, नरक विमान, भवन आदि के आकार,लोक स्थिति, जीव की गति
आगति, जीवन मरण आदि सभी सिद्धान्त के अर्थ का चिन्तन करे । तथा जीव एवं उसके कर्म से पैदा किए हुए