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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रस वश में न किये हुए क्रोध और मान एवं बढ़ते हुए माया और लोम-ये यारों कषाय संसार रूपी वृक्ष के मूल का सिंचन करने वाले हैं । अर्थात् संसार को बढ़ाने वाले हैं।
प्रशम आदि गुणों से शून्य एवं मिथ्यात्व से मूढ़ मतिवाला पापी जीव इस लोक में ही नरक सदृश दुःखों को पाता है।
क्रोध आदि सभी दोषों की अपेक्षा अज्ञान अधिक दुःखदायी है, क्योंकि अज्ञान से आच्छादित जीव अपने हिताहित को भी नहीं पहिचानता।
प्राणिवध से निवृत्त न होने से जोव यहीं पर अनेक दूषणों का शिकार होता है । उसके परिणाम इतने क र हो जाते हैं कि वह लोक निन्दित स्वपुत्र वध जैसे जघन्य कृत्य भी कर बैठता है।
इसी प्रकार आश्रव से अर्जित पापकर्मों से जीव चिरकाल तक नरकादि नीच गतियों में भ्रमण करता हुआ अनेक अपायों (दुःखों) का भाजन होता है । __ कायिकी आदि क्रियाओं में वर्तमान जीव इस लोक एवं परलोक में दुःखी होते हैं। ये क्रियाएं संसार बढ़ाने वाली कही गई हैं। ___ इस प्रकार राग द्वेष कषाय आदि के अपायों के चिंतन करने में मन को एकाग्र करना अपाय विचय धर्मध्यान है।
इन दोषों से होने वाले कुफल का चिन्तन करने वाला