________________ 362 श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला चारित्र होता है। तप चारित्र का भेद है / इस लिये अनुत्तर चारित्र होने से उनके अनुत्तर तप भी होता है। शैलेशी अवस्था में होने वाला शुक्लध्यान ही केवली के अनुत्तर तप है / वीर्यान्तराय कर्म के क्षय होने से केवली के अनुत्तर वीर्य होता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 410) पाँच बोल: पाँच बोलों से अवधिज्ञान द्वारा पदार्थों को देखते ही प्रथम समय में वह चलित हो जाता है / अथवा अवधिज्ञानद्वारा पदार्थों का ज्ञान होने पर प्रारम्भ में ही अवधिज्ञानी 'यह क्या ? ' इस तरह मोहनीय कर्म का क्षय न होने से विस्मयादि से दङ्ग रह जाता है। (1) अवधिज्ञानी थोड़ी पृथ्वी देख कर 'यह क्या ?' इस प्रकार __ आश्चर्य से क्षुब्ध हो जाता है क्योंकि इस ज्ञान के पहले वह विशाल पृथ्वी की सम्भावना करता था। (2) अत्यन्त प्रचुर कुंथुनों की राशि रूप पृथ्वी देख कर विस्मय और दयावश अवधिज्ञानी चकित रह जाता है। (3) बाहर के द्वीपों मे होने वाले एक हजार योजन परिमाण के महासर्प को देखकर विस्मय और भयवश अवधिज्ञानी घबरा उठता है। (4) देवता को महाऋद्धि, द्युति, प्रभाव, बल और सौख्य सहित देखकर अवधिज्ञानी आश्चर्यान्वित हो जाता है।