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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
२०१ कठोर एवं संक्लिष्ट परिणाम वाला रौद्रध्यानी दूसरे के दुःख से प्रसन्न होता है । ऐहिक एवं पारलौकिक भय से रहित होता है। उसके मन में अनुकम्पा भाव लेशमात्र भी नहीं होता । अकार्य करके भी इसे पश्चाताप नहीं होता । पाप करके भी वह प्रसन्न होता है।
(आवश्यक अध्ययन ४) २२० धर्मध्यान के चार प्रकार
(१) आज्ञा विचय । (२) अपाय विचय।
(३) विपाक विचय। (४) संस्थान विचय । (१) आज्ञा विचय-सूक्ष्म तत्वों के उपदर्शक होने से
अति निपुण, अनादि अनन्त, प्राणियों के वास्ते हितकारी, अनेकान्त का ज्ञान कराने वाली, अमूल्य, अपरिमित, जैनेतर प्रवचनों से अपराभूत, महान् अर्थवाली, महाप्रभाव शाली एवं महान् विषय वाली, निर्दोष, नयभंग एवं प्रमाण से गहन, अतएव अकुशल जनों के लिए दुर्जेय ऐसी जिनाज्ञा (जिन प्रवचन) को सत्य मान कर उस पर श्रद्धा करे एवं उसमें प्रतिपादित तत्त्वों का चिन्तन और मनन करे । वीतराग के प्रतिपादित तत्व के रहस्य को समझाने वाले, आचार्य महाराजा के न होने से, ज्ञेय की गहनता से अर्थात् ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से और मति दौर्बल्य से जिन प्रवचन प्रतिपादित तच्च सम्यग रूप से समझ में न आवे अथवा किसी विषय में हेतु उदाहरण के संभव न होने से वह बात समझ में न आवे तो यह विचार करे