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श्री सेटिया जैन ग्रन्थमाला ८८-श्रमणापासक-श्रावक के तीन मनोरथ:-- १-पहले मनोरथ में श्रावकजी यह भावना भावें कि कर वह शुभ समय प्राप्त होगा। जब मैं अल्प या अधिक
परिग्रह का त्याग करूंगा। २-दूसरे मनोरथ में श्रावकजी यह चिन्तन करें कि कब वह शुभ ममय प्राप्त होगा जब मैं गृहस्थावास को छोड़ कर मुंडित होकर प्रवज्या अंगीकार करूंगा। ३-तीमरे मनोग्थ में श्रावकजी यह विचार करें कि कब वह शुभ अवसर प्राप्त होगा जब मैं अन्त ममय में संलेखना स्वीकार कर, आहार पानी का त्याग कर, पादोपगमन मरण अंगीकार कर जीवन-मरण की इच्छा न करना हुआ रहूंगा।
इन तीन मनोरथों का मन, वचन, काया से चिन्तन करता हुआ श्रमणोपासक (श्रावक) महानिर्जग एवं महापर्यवमान (प्रशस्त अन्त) वाला होता है ।
(ठाणांग ३ उद्देशा ४ सूत्र २१०) ८६-मर्व विगति माधु के तीन मनोरथः--
(१) पहले मनोरथ में माधुजी यह विचार करें कि कब वह शुभ ममय आवेगा जिम ममय मैं थोड़ा या अधिक शास्त्र ज्ञान मीचूंगा। (२) दूमरे मनोग्य में साधुजी यह विचार करें कि कब वह शुभ समय आवेगा जब मैं एकल विहार की भिक्षुप्रतिमा ( भिक्खु पडिमा ) अङ्गीकार कर विचरूँगा।