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श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह
१६७ होने पर उनके वियोग की चिन्ता करना तथा भविष्य में भी उनका संयोग न हो, ऐसी इच्छा रखना आर्त ध्यान का
प्रथम प्रकार है । इस आर्त ध्यान का कारण द्वेष है। (२) रोग चिन्ताः-शूल, सिर दर्द आदि रोग आतङ्क के होने पर
उनकी चिकित्सा में व्यग्र प्राणी का उनके वियोग के लिए चिन्तन करना तथा रोगादि के अभाव में भविष्य के लिए रोगादि के संयोग न होने की चिन्ता करना आर्त ध्यान का
दूसरा प्रकार है। संयोग चिन्ता मनोज्ञः-पांचों इन्द्रियों के विषय एवं उनके साधन
रूप, स्व, माता, पिता, भाई, स्वजन, स्त्र, पुत्र और धन, तथा साता वेदना के वियोग में, उनका वियोग न होने का अध्यवसाय करना तथा भविष्य में भी उनके संयोग की इच्छा करना आर्त ध्यान का तीसरा प्रकार है । राग इमका
मूल कारण है। (४) निदान (नियाणा)-देवेन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव के
रूप गुण और ऋद्धि को देख या सुन कर उनमें आसक्ति लाना और यह सोचना कि मैंने जो तप संयम आदि धर्म कृत्य किये हैं। उनके फल स्वरूप मुझे भी उक्त गुण एवं ऋद्धि प्राप्त हो। इस प्रकार अधम निदान की चिन्ता करना
आर्त ध्यान का चौथा प्रकार है । इस आर्त ध्यान का मूल कारण अज्ञान है । क्योंकि अज्ञानियों के सिवा औरों को सांसारिक सुखों में आसक्ति नहीं होती । ज्ञानी पुरुषों के चित्त में तो सदा मोक्ष की लगन बनी रहती है।