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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह उत्कट ज्ञानावरणीयादि अशुभ कर्म के कारण भूत कर्म एवं व्यापार को कर्मादान कहते हैं। इंगालकर्म, वन कर्म आदि पन्द्रह कर्मादान हैं । ये कर्म की अपेक्षा सातवें व्रत के अतिचार है । प्रायः ये लोक व्यवहार में भी निन्ध गिने जाते हैं। और महा पाप के कारण होने से दुर्गति में ले
जाने वाले हैं । अतः श्रावक के लिये त्याज्य हैं । नोट:-पन्द्रह कर्मादन का विवेचन आगे पन्द्रहवें घोल में दिया
जायगा। ३०८-अनर्थदण्ड विरमण व्रत के पाँच अतिचार
(१) कन्दर्प। (२) कौत्कुच्य। (२) मौखर्य । (४) संयुक्ताधिकरण ।
(५) उपभोग परिभोगातिरिक्त । (१) कन्दर्पः काम उत्पन्न करने वाले वचन का प्रयोग करना,
राग के आवेश में हास्य मिश्रित मोहोद्दीपक मज़ाक करना
कन्दर्प अतिचार है। (२) कौत्कुच्यः-मांडों की तरह भौंएं, नेत्र, नासिका, ओष्ठ, मुख,
हाथ, पैर आदि अंगों को विकृत बना कर दूसरों को हँसाने
वाली चेष्टा करना कौत्कुच्य अतिचार है। (३) मौखर्यः-दिठाई के साथ असत्य, ऊट पटांग वचन बोलना
मौखर्य्य अतिचार है। (४) संयुक्ताधिकरण कार्य करने में समर्थ ऐसे उखल और
मूसल, शिला और लोदा, हाल और फाल, गाड़ी और जूभा, धनुष और बाण, वसूला और कुल्हाड़ी, चक्की