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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला जीव हिंसा से निवृत्त नहीं है । अत एव उसका प्रत्याख्यान
दुष्प्रत्याख्यान है। सुप्रत्याख्यानः-प्रत्याख्यान और उसके विषय का पूरा स्वरूप
जानने वाले का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है । जैसे उपरोक्त रीति से प्राण, भृत, जीव, सत्व की हिंसा का प्रत्याख्यान करने वाला पुरुष यदि जीव, त्रस, स्थावर आदि के स्वरूप का पूरा जानकार है तो उसके प्रत्याख्यान की बात कहना सत्य है । और वह प्रत्याख्यान करने वाला जीवों की हिंसा से निवृत्त होता है । अत एव उसका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है।
(भगवती शतक ७ उद्देशा २ के अधार से) ५५-गुण के दो प्रकार से दो भेदः--
(१) मूल गुण (२) उत्तर गुण ।
(१) स्वाभाविक गुण (२) वैभाविक गुण | मूलगुणः-चारित्र रूपी वृक्ष के मूल (जड़) के ममान जो हों वे
मूल गुण हैं । माधु के लिए पांच महाव्रत और श्रावक के
लिए पांच अणुव्रत मूल गुण हैं। उत्तर गुणः-मूल गुण की रक्षा के लिए चारित्र रूपी वृक्ष की
शाखा, प्रशाखावत् जो गुण हैं वे उत्तर गुण हैं। जैसे साधु के लिए पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा, अभिग्रह आदि । और श्रावक के लिए दिशावत आदि ।
(सूयगडांग सूत्र १ अध्ययन १४)
(पंचाशक विवरण ५)