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श्री जैन सिद्धान्न बोल संग्रह स्वाभाविक गुणः-पदार्थों के निज गुणों को स्वाभाविक गुण
कहते हैं । जैसे आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि गुण।। वैभाविक गुणः-अन्य द्रव्यों के सम्बन्ध से जो गुण हों और
स्वाभाविक न हों वे वैभाविक गुण हैं । जैसे आत्मा के
राग, द्वेष आदि। ५६-श्रेणी के दो भेदः-(१) उपशम श्रेणी (२) क्षपक श्रेणी। श्रेणी:--मोहके उपशम और क्षय द्वारा आत्मविकाम की ओर
आगे बढ़ने वाले जीवों के मोह-कर्म के उपशम तथा क्षय करने के क्रम को श्रेणी कहते हैं। श्रेणी के दो भेद हैं ।
(१) उपशम श्रेणी (२) क्षपक श्रेणी । उपशम श्रेणी:--आत्मविकाम की ओर अग्रगामी जीवों के मोह
उपशम करने के क्रम को उपशम श्रेणी कहते हैं । उपशम श्रेणी का आरम्भ इस प्रकार होता है:--उपशम श्रेणी
को अंगीकार करने वाला जीव प्रशस्त अध्यवसायों में रहा हुआ पहले एक माथ अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल में अनन्तानुबन्धी कषायों को उपशान्त करता है । इसके बाद अन्तमुहूर्त में एक साथ दर्शन मोह की तीनों प्रकृतियों का उपशम करता है । इसके बाद छठे और सातवें गुणस्थान में कई बार आने जाने के बाद वह जीव आठवें गुणस्थान में आता है। आठवें गुणस्थान में पहुँच कर श्रेणी का आरम्भक यदि पुरुष हो तो अनुदीर्ण नपुंसक वेद का उपशम करता है
और फिर स्त्री वेद को दबाता है। इसके बाद हास्यादि छ। कषायों का उपशम कर पुरुष वेद का उपशम करता है।