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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ही होता है । औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर में दोनों प्रकार का बन्ध होता है।
(कर्मप्रन्थ पहला गाथा ३५) ५३-मरण के दो भेदः
(१) सकाम मरण (२) अकाम मरण । सकाम मरणः-विषय भोगों से निवृत्त होकर चारित्र में अनु
रक्त रहने वाली आत्मा की आकुलता रहित एवं संलेखना करने से, प्राणियों की हिंसा रहित जो मृत्यु होती है। वह सकाम मरण है। उक्त जीवों के लिए मृत्यु भयप्रद न होकर उत्सवरूप होती है। सकाम मरण को पण्डितमरण भी
अकाम मरणः-विषय भोगों में गृद्ध रहने वाले अज्ञानी जीवों
की न चाहते हुए भी अनिच्छापूर्वक जो मृत्यु होती है वह अकाम मरण है । इसी को बालमरण भी कहते हैं।
(उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ५) ५४-प्रत्याख्यान के दो भेदः
(१) दुष्प्रत्याख्यान (२) सुप्रत्याख्यान । दुष्प्रत्याख्यान:-प्रत्याख्यान और उसके विषय का पूरा स्वरूप
जाने विना किया जाने वाला प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है। जैसे कोई कहे कि मैंने प्राण (विकलेन्द्रिय ) भूत (वनस्पति ) जीव (पंचेन्द्रिय ) सत्त्व ( पृथ्वीकायादि चार स्थावर ) की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है । पर उसे जीव, अजीव, त्रस स्थावर आदि का ज्ञान नहीं है तो उसके प्रत्याख्यान की बात कहना असत्य है। एवं वह उक्त