________________ 406 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (5) पारिणामिक भावः कर्मों के उदय, उपशम आदि से निरपेक्ष जो भाव जीव को केवल स्वभाव से ही होता है वह पारिणामिक भाव है। अथवाःस्वभाव से हो स्वर में परिणत होते रहना पारिणामिक भाव है। अथवाःअवस्थित वस्तु का पूर्व अवस्था का त्याग किये विना उत्तरावस्था में चले जाना परिणाम कहलाता है। उससे होने वाला भाव पारिणामिक भाव है। पारिणामिक भाव के तीन भेद हैं:(१) जीवत्व (2) भव्यत्व / (3) अभव्यत्व। ये भाव अनादि अनन्त होते हैं / जीव द्रव्य के उपरोक्त पाँच भाव हैं / अजीव द्रव्यों में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल, इन चारों के पारिणामिक भाव ही होता है / पुद्गल द्रव्य में परमाणु पुद्गल और दूधणुकादि सादि स्कन्ध पारिणामिक भाव वाले ही हैं। किन्तु औदारिक आदि शरीर रूप स्कन्धों में पारिणामिक और औदयिक दो भाव होते हैं / कर्म पुद्गल के तो औपशमिक आदि पाँचों भाव होते हैं। (कर्म ग्रन्थ 4) (अनुयोगद्वार सूत्र पृष्ट 113) (प्रवचन सारोद्धार गाथा 1290 से 1268)