________________ 410 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ३८८ः-अन्तराय कर्म के पाँच भेदः जो कर्म आत्मा के वीर्य, दान, लाभ, भोग और उपभोग रूप शक्तियों का घात करता है वह अन्तराय कहा जाता है / यह कर्म भण्डारी के समान है / जैसे:-राजा को दान देने की आज्ञा होने पर भी भण्डारी के प्रतिकूल होने से याचक को खाली हाथ लौटना पड़ता है / राजा की इच्छा को भण्डारी सफल नहीं होने देता / इसी प्रकार जीव राजा है, दान देने आदि की उसकी इच्छा है परन्तु भण्डारी के सरीखा यह अन्तराय कर्म जीव की इच्छा को सफल नहीं होने देता। अन्तराय कर्म के पांच भेदः-- (1) दानान्तराय (2) लाभान्तराय / (3) भोगान्तराय (4) उपभोगान्तराय / (5) वीर्यान्तराय / / (1) दानान्तरायः-दान की सामग्री तैयार है, गुणवान पात्र आया हुआ है, दाता दान का फल भी जानता है / इस पर भी जिस कर्म के उदय से जीव को दान करने का उत्साह नहीं होता वह दानान्तराय कर्म है। (2) लाभान्तराय:-योग्य सामग्री के रहते हुए भी जिस कर्म के उदय से अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति नहीं होती वह लाभान्तराय कर्म है / जैसे:-दाता के उदार होते हुए, दान की सामग्री विद्यमान रहते हुए तथा माँगने की कला में कुशल होते हुए भी कोई याचक दान नहीं पाता यह लाभान्तराय कर्म का फल ही समझना चाहिए /