________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 411 (3) भोगान्तरायः त्याग, प्रत्याख्यान के न होते हुए तथा भोगने की इच्छा रहते हुए भी जिस कर्म के उदय से जीव विद्यमान स्वाधीन भोग सामग्री का कृपणता वश भोग न कर सके वह भोगान्तराय कर्म है। (4) उपभोगान्तरायः-जिस कर्म के उदय से जीव त्याग, प्रत्या ख्यान न होते हुए तथा उपभोग की इच्छा होते हुए भी विद्यमान स्वाधीन उपभोग सामग्री का कृपणता वश उपभोग न कर सके वह उपभोगान्तगय कर्म है / (5) वीर्यान्तराय:-शरीर नीरोग हो, तरुणावस्था हो, बलवान हो फिर भी जिस कर्म के उदय से जीव प्राणशक्ति रहित होता है तथा सत्व हीन की तरह प्रवृत्ति करता है / वह वीर्यान्तराय कर्म है। वीर्यान्तराय कर्म के तीन भेदः(१) बाल वीर्यान्तराय (2) पण्डित वीर्यान्तराय / (3) वाल-पण्डित वीर्यान्तराय / बाल-वीर्यान्तरायः-समर्थ होते हुए एवं चाहते हुए भी जिसके उदय से जीव मांसारिक कार्य न कर सके वह बाल वीर्या पण्डित वीर्यान्तरायः-सम्यग्दृष्टि साधु मोक्ष की चाह रखता हुआ भी जिस कर्म के उदय से जीव मोक्ष प्राप्ति योग्य क्रियाएं न कर सके वह पण्डित वीर्यान्तराय है।