________________ 412 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला बाल-पण्डित-वीर्यान्तरायः-देश विरति रूप चारित्र को चाहता हुआ भी जिस कर्म के उदय से जीव श्रावक की क्रियाओं का पालन न कर सके वह बाल-पण्डित वीर्यान्तराय है / (कर्म गन्थ भाग 1) [पन्नवणा पद 23] ३८६ः-शरीर की व्याख्या और उसके भेदः जो उत्पत्ति समय से लेकर प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होता रहता है / तथा शरीर नाम कर्म के उदय से उत्पन्न होता है वह शरीर कहलाता है। शरीर के पाँच भेदः (1) औदारिक शरीर / (2) वैक्रिय शरीर / (3) आहारक शरीर। (4) तेजस शरीर / (5) कार्माण शरीर / (1) औदारिक शरीर:-उदार अर्थात् प्रधान अथवा स्थूल पुद्गलों से बना हुआ शरीर औदारिक कहलाता है / तीर्थकर, गणधरों का शरीर प्रधान पुद्गलों से बनता है और सर्व साधारण का शरीर स्थूल असार पुद्गलों से बना हुआ होता है। अथवाःअन्य शरीरों की अपेक्षा अवस्थित रूप से विशाल अर्थात् बड़े परिमाण वाला होने से यह औदारिक शरीर कहा जाता है / वनस्पति काय की अपेक्षा औदारिक शरीर की एक सहस्र योजन की अवस्थित अवगाहना है। अन्य सभी शरीरों की अवस्थित अवगाहना इससे कम है। वैक्रिय