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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २८७ (२) विरति-प्राणातिपात आदि पाप-व्यापार से निवृत्त होना
विरति है। (३) अप्रमाद-मद्य, विषय, कषाय निद्रा, विकथा-इन पांच प्रमादों
का त्याग करना, अप्रमत्त भाव में रहना अप्रमाद है । (४) अकषाय-कोध, मान, माया, लोभ-इन चार कषायों को
त्याग कर क्षमा, मार्दव, आर्जव और शौच (निर्लोभता)
का सेवन करना अकषाय है। (५) अयोग-मन, वचन, काया के व्यापारों का निरोध करना
प्रयोग है। निश्चय दृष्टि से योग निरोध ही संवर है। किन्तु व्यवहार से शुभ योग भी मंवर माना जाता है।
(प्रश्न व्याकरण धर्मनार ५वां) पांचों इन्द्रियों को उनके विषय शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श की ओर जाने से रोकना, उन्हें अशुभ व्यापार से निवृत्त करके शुभ व्यापार में लगाना श्रोत्र, चक्षु, घाण, रसना और स्पर्शन इन्द्रियों का संवर है । (१) अहिंसा--किसी जीव की हिंमा न करना या दया करना अहिंसा है। (२) अमृषा-झूठ न बोलना, या निरवद्य सत्य वचन बोलना अमृषा है। (३) अचौर्य-चोरी न करना या स्वामी की आज्ञा मांग कर कोई भी चीज़ लेना अचौर्य है। (४) अमैथुन-मैथुन का त्याग करना अर्थात् ब्रह्मचर्य पालन करना अमेथुन है।