________________
२२२
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला खोल कर पात्र फैलाने तक व्यतिक्रम दोष है । आधाकर्मी आहार ग्रहण करने से लेकर वापिस उपाश्रय में आने, गुरु के समक्ष आलोचना करना एवं खाने की तैयारी करने तक अतिचार दोप है । खा लेने पर अनाचार दोष लगता है।
(पिण्ड नियुक्ति) अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार में उत्तरोत्तर दोष की अधिकता है । क्योंकि एक से दूसरे का प्रायश्चित्त अधिक है।
मूल गुणों में अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार से चारित्र में मलीनता आती है और उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण आदि से शुद्धि हो जाती है । अनाचार से मूल गुण सर्वथा भङ्ग हो जाते हैं । इस लिए नये सिरे से उन्हें ग्रहण करना चाहिए । उत्तर गुणों में अतिक्रमादि चारों से चारित्र की मलीनता होती है परन्तु व्रत भङ्ग नहीं होते ।
(धर्म संग्रह अधिकार ३) २४५ (क):-प्रायश्चित्त चारः-- सश्चित पाप को छेदन करना-प्रायश्चित्त है।
अथवा:अपराध मलीन चित्त को प्रायः शुद्ध करने वाला जो कृत्य है वह प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त चार प्रकार के हैं:
(१) ज्ञान प्रायश्चित्त । (२) दर्शन प्रायश्चित्त । (३) चारित्र प्रायश्चित्त। (४) व्यक्तकृत्य प्रायश्चित्त ।