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श्री जैन सिद्धान बोल संग्रह २१३ (२) विपरिणामानुप्रेक्षा-वस्तुओं के विपरिणमन पर विचार
करना । जैसे—सर्वस्थान अशाश्वत हैं । क्या यहाँ के और क्या देवलोक के । देव एवं मनुष्य आदि की ऋद्धियां और सुख अस्थायी हैं। इस प्रकार की भावना विपरिणामा
नुप्रेता है। (३) अशुभानुप्रेक्षा:-मंमार के अशुभ स्वरूप पर विचार करना ।
जैसे कि इस संमार को धिक्कार है जिसमें एक सुन्दर रूप वाला अभिमानी पुरुष मर कर अपने ही मृत शरीर में कृमि (कीड़े) रूप से उत्पन्न हो जाता है । इत्यादि रूप
से भावना करना अशुभानुप्रेक्षा है। (४) अपायानुप्रेक्षा:-अाश्रवों से होने वाले, जीवों को दुःख
देने वाले, विविध अपायों से चिन्तन करना, जैसे वश में नहीं किये हुऐ क्रोध और मान, बढ़ती हुई माया और लोभ ये चारों कपाय संसार के मूल को सींचने वाले हैं। अर्थात् संसार को बढ़ाने वाले हैं । इत्यादि रूप से आश्रय से होने वाले अपायों की चिन्तना अपायानुप्रेक्षा है ।
(ठाणांग ४ सूत्र २४७) (आवश्यक अध्ययन ४) (भगवती शतक २५ उद्देशा ७)
(उववाई सूत्र तप अधिकार) २२६-चार विनय प्रतिपतिः
आचार्य शिष्य को चार प्रकार की प्रतिपत्ति मिखा कर उऋण होता है। विनय प्रतिपत्ति के चार प्रकार: