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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह में लक्षण के रहने को अव्याप्ति दोष कहते हैं। जैसे पशु का लक्षण सींग।
अथवा
जीव का लक्षण पंचेन्द्रियपन । अतिव्याप्तिः-लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में लक्षण के रहने को
अतिव्याप्ति दोष कहते हैं । जैसे गौ का लक्षण सींग। असम्भवः-लक्ष्य में लक्षण के सम्भव न होने को असम्भव दोष कहते हैं। जैसे अग्नि का लक्षण शीतलता ।
(न्याय दीपिका) २१-समारोप का लक्षण और उसके भेदः-जो पदार्थ जिस स्वरूप वाला नहीं है उसे उस स्वरूप वाला जानना समा
रोप है । इसी को प्रमाणाभास कहते हैं। समारोप के तीन भेदः
(१) संशय ( २ ) विपर्यय (३) अनध्यवसाय । संशयः-विरोधी अनेक पक्षों के अनिश्चयात्मक ज्ञान को संशय
कहते हैं । जैसे रस्सी में “यह रस्सी है या सांप" अथवा सौप में "यह सीप है या चांदी" ऐसा ज्ञान होना । संशय का मूल यही है कि जानने वाले को अनेक पक्षों के सामान्य धर्म का ज्ञान तो रहता है । परन्तु विशेष धर्मों का ज्ञान नहीं रहता।
उपरोक्त दोनों दृष्टान्तों में ज्ञाता को सांप और रस्सी का लम्बापन एवं सीप और चांदी की श्वेतता, चमक आदि सामान्य धर्म का तो ज्ञान है । परन्तु दोनों को पृथक करने