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श्री संठिया जैन ग्रन्थमाला वाले विशेष धर्मों का ज्ञान न होने से उसका ज्ञान दोनों
ओर झुक रहा है । यह तो निश्चित है कि एक वस्तु दोनों रूप तो हो नहीं सकती। वह कोई एक ही चीज होगी। इसी प्रकार जब हम दो या दो से अधिक विरोधी बातें मुनते हैं । तब भी संशय होना है । जैसे किसी ने कहाजीव नित्य है । दूसरे ने कहा जीव अनित्य है । दोनों विरोधी बातें मुन कर तीसरे को मन्देह हो जाता है।
बहुत सी वस्तुएं नित्य हैं और बहुत सी अनित्य । जीव भी वस्तु होने से नित्य या अनित्य दोनों हो सकता है। इस प्रकार जब दोनों कोटियों में मन्देह होता है तभी मंशय होता है । द्रव्यत्व की अपेक्षा प्रत्येक वस्तु नित्य है। और पर्याय की अपेक्षा अनित्य । इस प्रकार भिन्न २ अपेक्षाओं से दोनों धर्मों के अस्तित्व का निश्चय होने पर मंशय नहीं
कहा जा सकता। विपर्यय:--विपरीत पक्ष के निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय
कहते हैं। जैसे मांप को रस्मी समझना, मीप को चांदी
समझना। अनध्यवसाय:--"यह क्या है" ऐसे अस्पष्ट ज्ञान को अनध्य
वसाय कहते हैं । जैसे मार्ग में चलते हुए पुरुष को तृण, कंकर आदि का स्पर्श होने पर “यह क्या है ?" ऐसा अस्पष्ट ज्ञान होता है। वस्तु का स्पष्ट और निश्चित रूप से ज्ञान न होने से ही यह ज्ञान प्रमाणाभास माना गया है।
(रत्नाकरावतारिका परिच्छेद २)
(न्याय प्रदीप)