________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह कर उनकी वस्त्रादि से सहायता करने के लिये प्राचार्य, उपाध्याय गच्छ से निकल जाते हैं। (ठाणांग 5 उद्देशा 2 सूत्र 436) ३४४-गच्छ में आचार्य, उपाध्याय के पाँच कलह स्थान:(१) आचार्य, उपाध्याय गच्छ में "इस कार्य में प्रकृतिकरो, इस कार्य को न करो"इस प्रकार प्रवृत्ति निवृत्ति रूप आज्ञा और धारणा की सम्यक् प्रकार प्रवृत्ति न करा सकें। (2) प्राचार्य, उपाध्याय गच्छ में साधुओं से रत्नाधिक (दीक्षा में बड़े) साधुओं की यथायोग्य विनय न करा सकें तथा स्वयं भी रत्नाधिक साधुओं की उचित विनय न करें। (3) प्राचार्य, उपाध्याय जो सूत्र एवं अर्थ जानते हैं उन्हें यथावसर सम्यग विधि पूर्वक गच्छ के साधुओं को न पढ़ावें। (4) आचार्य, उपाध्याय गच्छ में जो ग्लान और नवदीक्षित साधु हैं उनके वैयाकृत्य की व्यवस्था में सावधान न हों / (5) आचार्य, उपाध्याय गण को विना पूछे ही दूसरे क्षेत्रों में विचरने लग जायें / इन पाँच स्थानों से गच्छ में अनुशासन नहीं रहता है। इससे गच्छ में साधुओं के बीच कलह उत्पन्न होता है अथवा साधु लोग आचार्य, उपाध्याय से कलह करते हैं। इन बोलों से विपरीत पाँचबोलों से गच्छ में सम्यक व्यवस्था रहती है और कलह नहीं होता / इस लिये वे पाँच बोल अकलह स्थान के हैं। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 366)