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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला भवस्थिति:-जिस भव में जीव उत्पन्न होता है उसके उमी भव की स्थिति को भवस्थिति कहते हैं।
(ठाणांग २ उद्देशा ३ सूत्र ८५) ३२-काल के भेद और व्याख्या:--पदार्थों के बदलने में जो
निमित्त हो उसे काल कहते हैं । अथवा:--समय के समूह
को काल कहते हैं। काल की दो उपमायें:--(१) पल्योपम (२) मागगेपम । पल्योपमः-पल्य अर्थात् कूप की उपमा से गिना जाने वाला
काल पन्योपम कहलाता है। मागरोपमः--दम कोडाकोड़ी पन्योपम को मागरोपम कहते हैं।
(ठाणांग २ उद्देशा ४ सूत्र ) ३३-काल चक्र के दो भेदः-(१) उत्सर्पिणी (२) अवमर्पिणी। उत्सर्पिणी:--जिम काल में आयु, शरीर, बल आदि की उत्तगे
तर वृद्धि होती जाय वह उत्सर्पिणी हैं । यह दम कोड़ाकोड़ी
सागगेपम का होता है। अवसर्पिणी:-जिम काल में आयु, बल, शरीर आदि भाव उत्त
रोनर घटते जाय वह अवमर्पिणी है। यह भी दम कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है।
(ठाणांग २ उद्देशा १ सूत्र ७४) ३४-आकाश:-जो जीव और पुद्गलों को रहने के लिए स्थान
दे वह आकाश है। आकाश के दो भेदः-(१) लोकाकाश (२) अलोकाकाश ।