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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला अनर्थ-दण्ड के इन कार्यों का त्याग करना अनर्थदण्ड विरमण व्रत है।
(हरिभद्रीयावश्यक अध्याय ६ पृष्ठ ८२६-८३६) १२८ (ख) गुप्ति की व्याख्या और भेदः-अशुभ योग से निवृत्त होकर शुभयोग में प्रवृत्ति करना गुप्ति है।
अथवाःमोक्षाभिलाषी आत्मा का आत्म रक्षा के लिए अशुभ योगों का रोकना गुप्ति है।
अथवा:आने वाले कर्म रूपी कचरे को रोकना गुप्ति है। गुप्ति के तीन भेदः
मनोगुप्ति (२) वचनगुप्ति (३) कायगुप्ति । मनोगुप्तिः आध्यान, रौद्रध्यान, संरम्भ, समारम्भ और
प्रारम्भ सम्बन्धी संकल्प विकल्प न करना, परलोक में हितकारी धर्म ध्यान सम्बन्धी चिन्तवना करना, मध्यस्थ भाव रखना, शुभ अशुभ योगों को रोक कर योग निरोध अवस्था में होने वाली अन्तरात्मा की अवस्था को प्राप्त
करना मनोगुप्ति है। वचनगुप्तिः-वचन के अशुभ व्यापार, अर्थात् संरम्भ समारम्भ
और आरम्भ सम्बन्धी वचन का त्याग करना, विकथा न करना, मौन रहना वचन गुप्ति है। कायगुप्तिः-खड़ा होना, बैठना, उठना, सोना, लांघना, सीधा
चलना, इन्द्रियों को अपने अपने विषयों में लगाना, संरम्भ, समारम्भ आरम्भ में प्रवृत्ति करना, इत्यादि कायिक