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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला रुचिः-व्याख्याता द्वारा उपदिष्ट विषय में श्रद्धा करके उसके अनुसार तप, चारित्र आदि सेवन की इच्छा करना रुचि है।
(भगवती शतक १ उद्देशा६) १२८ (क) गुणव्रत की व्याख्या और भेदः-अणुव्रत के
पालन में गुणकारी यानि उपकारक गुणों को पुष्ट करने वाले व्रत गुणव्रत कहलाते हैं। गुण व्रततीन हैं:(१) दिशिपरिमाण व्रत (२) उपभोग परिमाणवत (३)
अनर्थदण्ड विरमण व्रत। दिशिपरिमाण व्रतः-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर, नीचे
इन छह दिशाओं की मर्यादा करना एवं नियमित दिशा से
आगे आश्रब सेवन का त्याग करना दिशिपरिमाण व्रत
कहलाता है। उपभोग परिभोग परिमाण व्रतः-भोजन आदि जो एक बार
भोगने में आते हैं वे उपभोग हैं । और बारबार भोगे जाने वाले वस्त्र, शय्या आदि परिभोग हैं । उपभोग परिभोग योग्य वस्तुओं का परिमाण करना, छब्बीस बोलों की मर्यादा करना एवं मर्यादा के उपरान्त उपभोग परिभोग योग्य वस्तुओं के भोगोपभोग का त्याग करना उपभोग
परिभोग परिमाण व्रत है। अनर्थदण्ड विरमण व्रतः-अपध्यान अर्थात् आर्तध्यान, रौद्र
ध्यान करना, प्रमाद पूर्वक प्रवृति करना, हिंसाकारी शस्त्र देना एवं पाप कर्म का उपदेश देना ये सभी कार्य अनर्थदण्ड हैं। क्योंकि इनसे निष्प्रयोजन हिंसा होती है।