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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह प्रदेशी है। (३) काल की अपेक्षा धर्मास्तिकाय त्रिकाल स्थायी है । यह भूत
काल में रहा है । वर्तमान काल में विद्यमान है और भविष्यत् काल में भी रहेगा । यह ध्रुव है, नित्य है,शाश्वत
है, अक्षय एवं अव्यय है तथा अवस्थित है। (४) भाव की अपेक्षा धर्मास्तिकाय वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श
रहित है । अरूपी है तथा चेतना रहित अर्थात् जड़ है। (५) गुण की अपेक्षा गति गुण वाला है अर्थात् गति परिणाम
वाले जीव और पुद्गलों की गति में सहकारी होना इसका गुण है।
(ठाणांग ५ सूत्र ४४१) अधर्मास्तिकाय के पाँच प्रकार--
अधर्मास्तिकाय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा धर्मास्तिकाय जैसा ही है।
गुण की अपेक्षा अधर्मास्तिकाय स्थिति गुण वाला है। आकाशास्तिकाय के पाँच प्रकारः
आकाशास्तिकाय द्रव्य, काल और भाव की अपेक्षा धर्मास्तिकाय जैसा ही है।
क्षेत्र की अपेक्षा आकाशास्तिकाय लोकालोक व्यापी है और अनन्त प्रदेशी है । लोकाकाश धर्मास्तिकाय की तरह असंख्यात प्रदेशी है।
गुण की अपेक्षा आकाशास्तिकाय अवगाहना गुण वाला है अर्थात् जीव और पुद्गलों को अवकाश देना ही इसका गुण है।