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श्री संठिया जैन मन्धमाला अर्थधरः-शास्त्र के अर्थ को धारण करने वाले अर्थवेना पुरुष को
अर्थधर पुरुष कहते हैं। तदुभयधरः-सूत्र और अर्थ दोनों को धारण करने वाले शास्त्रार्थवेत्ता पुरुष को तदुभयधर पुरुष कहते हैं।
(ठाणांग ३ उद्देशा ३ सूत्र १६६) ८५-व्यवसाय की व्याख्या और भेदः--वस्तु स्वरूप के निश्चय
को व्यवमाय कहते हैं। व्यवसाय के तीन भेदः--
(१) प्रत्यक्ष (२) प्रात्ययिक (३) आनुगमिक (अनुमान) प्रत्यक्ष व्यवसाय: -अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान और केवल ज्ञान
को प्रत्यक्ष व्यवसाय कहते हैं । अथवा वस्तु के स्वरूप को
स्वयं जानना प्रत्यक्ष व्यवसाय है। प्रात्ययिक व्यवसायः--इन्द्रिय एवं मन रूप निमित्त से होने
वाला वस्तुस्वरूप का निर्णय प्रात्ययिक व्यवसाय कहलाता है । अथवा आप्त (वीतराग)के वचन द्वारा होने वाला वस्तु
स्वरूप का निर्णय प्रात्ययिक व्यवसाय है। आनुगमिक व्यवसाय:-साध्य का अनुसरण करने वाला एवं
साध्य के विना न होने वाला हेतु अनुगामी कहलाता है। उस हेतु से होने वाला वस्तु स्वरूप का निर्णय आनुगमिक व्यवसाय है।
(ठाणांग ३ उद्देश। ३ सूत्र १८५) ८६-आराधना तीन:-अतिचार न लगाते हुए शुद्ध आचार का
पालन करना आराधना है। आराधना के तीन भेदः