________________ mयाकरलाता है श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (1) अरसाहारः-हींग आदि के बघार से रहित नीरस आहार करने वाला साधु अरसाहार कहलाता है। (2) विरसाहारः-विगत रस अर्थात् रस रहित पुराने धान्य आदि का आहार करने वाला साधु विरसाहार कहलाता है। (3) अन्ताहारः-भोजन के बाद अवशिष्ट रही हुई वस्तु का आहार करने वाला साधु अन्ताहार कहलाता है। (4) प्रान्ताहारः--तुच्छ, हल्का या बासी आहार करने वाला साधु प्रान्ताहार कहलाता है। (5) लूक्षाहारः-नीरस, घी, तेलादि वर्जित भोजन करने वाला साधु लक्षाहार कहलाता है। ये भी पांच अभिग्रह विशेष-धारी साधुओं के प्रकार हैं। इसी प्रकार जीवन पर्यन्त अरस, विरस, अन्त, प्रान्त, एवं रूक्ष भोजन से जीवन निर्वाह के अभिग्रह वाले साधु अरसजीवी, विरसजीवी, अन्तजीवी, प्रान्तजीवी एवं रूक्ष जीवी कहलाते हैं। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 386) ३५७-भगवान् महावीर से उपदिष्ट एवं अनुमत पाँच स्थान: (1) स्थानातिग (2) उत्कटुकासनिक (3) प्रतिमास्थायी (4) वीरासनिक (5) नैषधिक। (1) स्थानातिगः-अतिशय रूप से स्थान अर्थात् कायोत्सर्ग करने वाला साधु स्थानातिग कहलाता है। (2) उत्कटुकासनिक-पीढे वगैरह पर कून्हे (पुत ) न लगाते हुए पैरों पर बैठना उत्कटुकासन है / उत्कटुकासन से बैठने