________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह કરરૂ सातवें महाशुक्र और आठवें सहस्रार देवलोक में देवता शब्द परिचारणा वाले हैं। वे देवियों के आभूषण आदि की धनि को सुन कर ही वेद जनित बाधा से निवृन हो जाते हैं। शेष चार आणत, प्राणत, आरण और अच्युत देवलोक के देवता मन परिचारणा वाले होते हैं अर्थात् संकल्प मात्र से ही वे तृप्त हो जाते हैं। अवेयक और अनुत्तर विमानवामी देवता परिचारणा रहित होते हैं / उन्हें मोह का उदय कम रहता है / इस लिये वे प्रशम सुख में ही तल्लीन रहते हैं। ___काय परिचारणा वाले देवों से स्पर्श परिचारणा वाले देव अनन्त गुण सुख का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार उत्तरोत्तर रूप, शब्द, मन की परिचारणा वाले देव पूर्व पूर्व से अनन्त गुण सुख का अनुभव करते हैं। परिचारणा रहित देवता और भी अनन्त गुण सुख का अनुभव करते हैं। (पन्नवणा पद 34) (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 402) ३६६-ज्योतिषी देव के पाँच भेदः (1) चन्द्र / (2) सूर्य। (3) ग्रह। (4) नक्षत्र / (5) तारा / मनुष्य क्षेत्रवर्ती अर्थात् मानुष्योत्तर पर्वत पर्यन्त अढ़ाई द्वीप में रहे हुए ज्योतिषी देव सदा मेरु पर्वत क