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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला एवं जो सभी जीवों को आत्मवन् समझता है । वह समण कहलाता है। (२) जिसे संसार के सभी प्राणियों में न किसी पर राग है
और न किसी पर द्वेष । इस प्रकार समान मन ( मध्यस्थ भाव ) वाला होने से साधु स-मन कहलाता है। (३) जो शुभ द्रव्य मन वाला है और भाव से भी जिमका मन कभी पापमय नहीं होता । जो स्वजन, परजन एवं मान अपमान में एक सी वृत्ति वाला है । वह श्रमण कहलाता है। (४) जो मर्प, पर्वत, अग्नि, सागर, आकाश, वृक्ष पंक्ति, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, सूर्य एवं पवन के समान होता है वह श्रमण कहलाता है।
दृष्टान्तों के साथ दार्टान्तिक इस तरह घटाया जाना है।
सर्प जैसे चूहे आदि के बनाये हुए बिल में रहता है उसी प्रकार साधु भी गृहस्थ के बनाये हुए घर में वास करता है । वह स्वयं घर आदि नहीं बनाता।
पर्वत जैसे आंधी और बवंडर से कभी विचलित नहीं होता । उसी प्रकार साधु भी परिषह और उपसर्ग द्वारा विचलित नहीं होता हुआ संयम में स्थिर रहता है। __अग्नि जैसे तेजोमय है । तथा कितना ही भक्ष्य पाने पर भी वह तृप्त नहीं होती। उसी प्रकार मुनि भी तप से तेजस्वी होता है। एवं शास्त्र ज्ञान से कभी सन्तुष्ट नहीं होता। हमेशा विशेष शास्त्र ज्ञान सीखने की इच्छा रखता है ।