________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रस सागर जैसे गंभीर होता है। रत्नों के निधान से भरा होता है । एवं मर्यादा का त्याग करने वाला नहीं होता । उसी प्रकार मुनि भी स्वभाव से गंभीर होता है । ज्ञानादि रत्नों से पूर्ण होता है । एवं कैसे भी संकट में मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करता। आकाश जैसे निराधार होता है उसी प्रकार साधु भी आलम्बन रहित होता हैं।
वृक्ष पंक्ति जैसे सुख और दुःख में कभी विकृत नहीं होती । उसी प्रकार समता भाव वाला साधु भी सुख दुःख के कारण विकृत नही होता।
भ्रमर जैसे फूलों से रस ग्रहण करने में अनियत वृत्ति वाला होता है। तथा स्वभावतः पुष्पित फलों को कष्ट न पहुंचाता हुआ अपनी आत्मा को तृप्त कर लेता है। इसी प्रकार साधु भी गृहस्थों के यहां से आहार लेने में अनियत वृत्ति वाला होता है । गृहस्थों द्वारा अपने लिये बनाये हुए आहार में से, उन्हें असुविधा न हो इस प्रकार, थोड़ा थोड़ा आहार लेकर अपना निर्वाह करता है।
जैसे मृग वन में हिंसक प्राणियों से सदा शङ्कित एवं त्रस्त रहता है । उसी प्रकार साधु भी दोषों से शङ्कित रहता है।
पृथ्वी जैसे सब कुछ सहने वाली है। उसी प्रकार साधु भी सब दुःखों को सहने वाला होता है ।