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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह वाले आत्म परिणाम को वेदक समकित कहते हैं । दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि क्षायिक समकित होने से ठीक अव्यवहित पहले क्षण में होने वाले बायोपशमिक समकितधारी जीव के परिणाम को वेदक समकित कहते हैं। वेदक समकित की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट एक समय की है। एक समय के बाद वेदक समकित क्षायिक समकित में परिणत हो जाता है। इसका अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि वेदक समकित के बाद निश्चय पूर्वक दायिक समकित होता
ही है । वेदक समकित जीव को एक बार ही आता है। (५) क्षायिक समकित-अनन्तानुबन्धी चार कषाय और दर्शन
मोहनीय की तीन-इन सात प्रकृतियों के क्षय से होने वाला
आत्मा का तत्त्वरुचि रूप परिणाम क्षायिक समकित कहलाता है । क्षायिक समकित सादि अनन्त है । इसका अन्तर नहीं पड़ता । यह समकित जीव को एक ही बार आता है और आने के बाद सदा बना रहता।
(कर्म ग्रन्थ भाग १ गाथा १५) २८३--समकित के पांच लक्षण:(१) सम।
(२) संवेग। (३) निर्वेद।
(४) अनुकम्पा। (५) आस्तिक्य। (१) सम-अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय न होना सम
कहलाता है । कषाय के अभाव से होने वाला शान्ति-भाव भी सम कहा जाता है।