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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह जनित पाप के हेतु होने से सावध हैं । इस लिये हिंसा युक्त होने से वास्तव में असत्य ही हैं। ऐसे मृषावाद से सर्वथा जीवन पर्यन्त तीन करण तीन योग से निवृत्त होना
मृषावाद विरमण रूप द्वितीय महावत है। (३) अदत्तादान विरमण महाव्रत- कहीं पर भी ग्राम, नगर
अरण्य आदि में मचित्त, अचित्त, अल्प, बहु, अणु स्थूल श्रादि वस्तु को, उसके स्वामी की विना आज्ञा लेना अदत्तादान है । यह अदत्तादान स्वामी, जीव, तीर्थ एवं गुरु के भेद से चार प्रकार का होता है(१) स्वामी से विना दी हुई तृण, काष्ठ आदि वस्तु लेना म्वामी अदनादान है। (२) कोई सचित्त वस्तु स्वामी ने दे दी हो, परन्तु उस वस्तु के अधिष्ठाता जीव की आज्ञा विना उसे लेना जीव अदतादान है । जैसे माता पिता या मंरक्षक द्वारा पुत्रादि शिष्य भिक्षा रुप में दिये जाने पर भी उन्हें उनकी इच्छा विना दीक्षा लेने के परिणाम न होने पर भी उनकी अनुमति के विना उन्हें दीक्षा देना जीव अदत्तादान है। इसी प्रकार मचित्त पृथ्वी आदि स्वामी द्वारा दिये जाने पर भी पृथ्वी-शरीर के स्वामी जीव की आज्ञा न होने से उसे भोगना जीव अदनादान है । इस प्रकार सचित्त वस्तु के भोगने में प्रथम महाव्रत के साथ साथ तृतीय महाव्रत का भी भङ्ग होता है। (३) तीर्थंकर से प्रतिपंध किये हुए आधाकर्मादि आहार ग्रहण करना तीर्थंकर अदत्तादान है ।