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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
अथवा:अनेक जीवों को एक साथ जो एक सी क्रिया लगती हे । वह सामुदानिकी क्रिया है। जैसे नाटक, सिनेमा
आदि के दर्शकों को एक साथ एक ही क्रिया लगती है। इस क्रिया से उपार्जित कर्मों का उदय भी उन जीवों के एक साथ प्रायः एक सा ही होता है। जैसे-भूकम्प वगैरह।
अथवा:जिससे प्रयोग (मन वचन काया के व्यापार) द्वारा ग्रहण किये हुए एवं समुदाय अवस्था में रहे हुए कर्म प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप में व्यवस्थित किये जाते हैं वह सामुदानिकी क्रिया है । यह क्रिया मिथ्या दृष्टि से लगा कर सूक्ष्म सम्पराय गुण स्थान तक लगती है।
(सूयगडांगसूत्र श्रुतस्कन्ध २ अध्ययन २) (५) ईर्यापथिकी क्रियाः-उपशान्त मोह, क्षीण मोह और सयोगी
केवली इन तीन गुण स्थानों में रहे हुए अप्रमत्त साधु के केवल योग कारण से जो सातावेदनीय कर्म बँधता है। वह ईर्यापथिकी क्रिया है।
(ठाणांग २ सूत्र ६०) (ठाणांग ५ सूत्र ४१६)
(आवश्यक नियुक्ति) २६७-असंयम पाँच:
पाप से निवृत्त न होना असंयम कहलाता है अथवा सावध अनुष्ठान सेवन करना असंयम है।