________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 353 ३४२-प्राचार्य, उपाध्याय के शेष साधुओं की अपेक्षा पाँच अतिशयः___ गच्छ में वर्तमान आचार्य, उपाध्याय के अन्य साधुओं की अपेक्षा पाँच अतिशय अधिक होते हैं / (1) उत्सर्ग रूप से सभी साधु जब बाहर से आते हैं तो स्थानक में प्रवेश करने के पहिले बाहर ही पैरों को पूँजते हैं और झाटकते हैं। उत्सर्ग से आचार्य, उपाध्याय भी उपाश्रय से बाहर ही खड़े रहते हैं और दूसरे साधु उनके पैरों का प्रमाजन और प्रस्फोटन करते हैं अर्थात् धूलि दूर करते हैं और पूंजने हैं। परन्तु इसके लिये बाहर ठहरना पड़े तो दूसरे साधुओं की तरह प्राचार्य, उपाध्याय बाहर न ठहरने हुए उपाश्रय के अन्दर ही आजाते हैं और अन्दर ही दूसरे साधुओं से धूलि न उड़े, इस प्रकार प्रमार्जन और प्रस्फोटन कराते हैं; यानि पुंजवाते हैं और धूलि दूर करवाते हैं। ऐसा करते हुए भी वे साधु के प्राचार का अतिक्रमण नहीं करते। (2) आचार्य, उपाध्याय उपाश्रय में लघुनीत बड़ीनीत परठाते हुए या पैर आदि में लगी हुई अशुचि को हटाते हुए साधु के प्राचार का अतिक्रमण नहीं करते। (3) आचार्य, उपाध्याय इच्छा हो तो दूसरे साधुओं की वैया वृत्य करते हैं, इच्छा न हो तो नहीं भी करते हैं। (4) आचार्य, उपाध्याय उपाश्रय में एक या दो रात तक अकेले