________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 381 ये दोनों प्रकार के साधु प्रभूत वस्त्र पात्रादि रूप ऋद्धि और यश के कामी होते हैं। ये सातागारव वाले होते हैं और इस लिये रात दिन के कर्तव्य अनुष्ठानों में पूरे सावधान नहीं रहते / इनका परिवार भी संयम से पृथक तैलादि से शरीर की मालिश करने वाला, कैंची से केश काटने वाला होता है / इस प्रकार इनका चारित्र सर्व या देश रूप से दीक्षा पर्याय के छेद योग्य अतिचारों से मलीन रहता है। (3) कुशीलः-उत्तर गुणों में दोष लगाने से तथा संज्वलन कषाय के उदय से दूषित चारित्र वाला साधु कुशील कहा जाता है। कुशील के दो भेद हैं-- (1) प्रतिसेवना कुशील / (2) कपाय कुशील। प्रतिसेवना कुशीला चारित्र के प्रति अभिमुख होते हुए भी अजितेन्द्रिय एवं किसी तरह पिण्ड विशुद्धि, समिति भावना, तप, प्रतिमा आदि उत्तर गुणों की विराधना करने से सर्वज्ञ की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला प्रतिसेवना कुशील है। _____ कषाय कुशीलः-संज्वलन कषाय के उदय से सकषाय चारित्र वाला साधु कषाय कुशील कहा जाता है। (4) निर्मन्थ-ग्रन्थ का अर्थ मोह है। मोह से रहित साधु निम्रन्थ कहलाता है / उपशान्त मोह और क्षीण मोह के भेद से निग्रन्थ के दो भेद हैं।