________________ 440 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ४१६-पाँच प्रतिघात: प्रतिबन्ध या रुकावट को प्रतिघात कहते हैं। (1) गति प्रतिघात / (2) स्थिति प्रतिघात / (3) बन्धन प्रतिघात। (4) भोग प्रतिघात / (5) बल, वीर्य पुरुषाकार पराक्रम प्रतिघात / (1) गति प्रतिघात:--शुभ देवगति आदि पाने की योग्यता होने हुए भी विरूप (विपरीत ) कर्म करने से उसकी प्राप्ति न होना गति प्रतिघात है / जैसे दीक्षा पालने से कुण्डरीक को शुभ गति पाना था। लेकिन नरक गति की प्राप्ति हुई और इस प्रकार उसके देवगति का प्रतिघात हो गया / (2) स्थिति प्रतिघातः--शुभ स्थिति वान्ध कर अध्यवसाय विशेष से उसका प्रतिघात कर देना अर्थात् लम्बी स्थिति को छोटी स्थिति में परिणत कर देना स्थिति प्रतिघात है। (3) बन्धन प्रतिघात:-बन्धन नामकर्म का मेद है / इसके औदारिक बन्धन आदि पांच भेद हैं। प्रशस्त बन्धन की प्राप्ति की योग्यता होने पर भी प्रतिकूल कर्म करके उसकी घात कर देना और अप्रशस्त बन्धन पाना बन्धन प्रतिधात है। बन्धन प्रतिघात से इसके सहचारी प्रशस्त शरीर, अङ्गोपाङ्ग, संहनन, संस्थान आदि का प्रतिघात भी समझ लेना चाहिये। (4) भोग प्रतिघात:-प्रशस्त गति, स्थिति, बन्धन आदि का प्रतिघात होने पर उनसे सम्बद्ध भोगों की प्राप्ति में होने पर कार्य कैसे हो सकता है ?