________________ 344 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (4) गृहपति (शय्यादाता):-रहने के लिये स्थान देने से संयमोपकारी होता है। (5) शरीरः-धार्मिक क्रिया अनुष्ठानों का पालन शरीर द्वारा ही होता है / इसलिए शरीर धर्म का सहायक होता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 447) / ३३४-पाँच अवग्रह (1) देवेन्द्रावग्रह / (2) राजावग्रह / (3) गृहपति अवग्रह / (4) मागारी (शय्यादाता) अवग्रह / (5) साधर्मिकावग्रह / (1) देवेन्द्रावग्रहः-लोक के मध्य में रहे हुए मेरु पर्वत के बीचो वीच रुचक प्रदेशों की एक प्रदेशवाली श्रेणी है / इस से लोक के दो भाग हो गये हैं। दक्षिणार्द्ध और उत्तरार्द्ध / दक्षिणार्द्ध का स्वामी शकेन्द्र है और उत्तरार्द्ध का स्वामी ईशानेन्द्र है / इस लिये दक्षिणावर्ती साधुओं को शक्रन्द्र की और उत्तरार्द्धवर्ती साधुत्रों को ईशानेन्द्र की आज्ञा मांगनी चाहिये / __ भरत क्षेत्र दक्षिणार्द्ध में है / इस लिये यहाँ के साधुओं को शक्रेन्द्र की आज्ञा लेनी चाहिये / पूर्वकालवर्ती साधनों ने शक्रेन्द्र को आज्ञा ली थी / यही आज्ञा वर्तमान कालीन साधुओं के भी चल रही है। (2) राजावग्रहः-चक्रवर्ती आदि राजा जितने क्षेत्र का स्वामी है। उस क्षेत्र में रहते हुए साधुओं को राजा की आज्ञा लेना राजावग्रह है।