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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ३११ व्रती का व्रत भङ्ग के भय से स्वयं बाहर न जाकर निकटवर्ती लोगों को छींक, खांसी आदि शब्द द्वारा ज्ञान कराना
शब्दानुपात अतिचार है। (४) रूपानुपात-नियमित क्षेत्र से बाहर प्रयोजन होने पर
दूमरों को अपने पास बुलाने के लिए अपना या पदार्थ
विशेष का रूप दिखाना रूपानुपात अतिचार है। (५) बहिः पुद्गल प्रक्षेपः--नियमित क्षेत्र से बाहर प्रयोजन होने
पर दूसरों को जताने के लिये देला, कङ्कर आदि फेकना बहिःपुद्गल प्रक्षेप अतिचार है।
पूरा विवेक न होने से तथा सहसाकार अनुपयोगादि से पहले के दो अतिचार हैं । मायापरता तथा व्रत मापं. क्षता से पिछले तीन अतिचार हैं ।
(उपासक दशांग) (धर्म संग्रह अधिकार २ पृष्ठ ११४-११५)
(हरिभद्रीय आवश्यक पृष्ठ ८३४) ३११-प्रनिपूर्ण ( परिपूर्ण ) पौषध व्रत के पाँच अतिचार:
(१) अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षित शय्या संस्तारक । (२) अप्रमार्जिन दुष्प्रमार्जित शय्या संस्तारक । (३) अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षित उच्चार प्रस्रवण भूमि । (४) अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित उच्चार प्रस्रवण भृमि ।
(५) पौषध का सम्यक् अपालन । (१) अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षित शय्या संस्तारकः-शव्य .
संस्तारक का चक्षु से निरीक्षण न करना या अन्यमनस्क