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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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अनुमति वचन सुन कर ही साधु को उन्हें लेना चाहिये अन्यथा वह विना दी हुई वस्तु के ग्रहण करने एवं भोगने का दोषी है।
(३) साधु को उपाश्रय की सीमा को खोल कर एवं आज्ञा प्राप्त कर उसका सेवन करना चाहिये । तात्पर्य यह है कि एक बार स्वामी के उपाश्रय की आज्ञा दे देने पर भी बार बार उपाश्रय का परिमाण खोल कर आज्ञा प्राप्त करनी चाहिये | ग्लानादि अवस्था में लघुनीत बड़ीनीत परिठवने, हाथ, पैर, धोने आदि के स्थानों की, अवग्रह ( उपाश्रय ) की आज्ञा होने पर भी, याचना करना चाहिये ताकि दाता का दिल दुःखित न हो।
(४) गुरु अथवा रत्नाधिक की आज्ञा प्राप्त कर आहार करना चाहिए । आशय यह है कि सूत्रोक्त विधि से प्रासुक एषणीय प्राप्त हुए आहार को उपाश्रय में लाकर गुरु के आगे आलोचना कर और आहार दिखला कर फिर साधुमंडली में या अकेले उसे खाना चाहिये । धर्म के साधन रूप अन्य उपकरणों का ग्रहण एवं उपयोग भी गुरु की आज्ञा से ही करना चाहिये ।
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(५) उपाश्रय में रहे हुए समान आचार वाले संभोगी साधुओं से नियत क्षेत्र और काल के लिये उपाश्रय की आज्ञा प्राप्त करके ही वहाँ रहना एवं भोजनादि करना चाहिये अन्यथा चोरी का दोष लगता है ।
३२० - मैथुन विरमण रूप चतुर्थ महाव्रत की पाँच भावनाएं(१) ब्रह्मचारी को आहार के विषय में संयत होना चाहिए। अति