________________ श्री जैन सिद्धन्त बोल संग्रह 356 है। तथा जो स्थापना और प्राभृतिका दोष से दूषित आहार लेता है / वह सर्व अवसन्न है / नोट:-स्थापना दोषः-साधु के निमित्त रख छोड़े हुए आहार को लेना स्थापना दोष है। प्राभृतिका दोषः-साधु के लिये विवाहादि के भोज को आगे पीछे करके जो आहार बनाया जाता है / उसे लेना प्राभृतिका दोष है। देश अवमन्त्रः-जो प्रतिक्रमण नहीं करता अथवा अविधि से हीनाधिक दोष युक्त करता है या असमय में करता है / स्वाध्याय नही करता है अथवा निषिद्ध काल में करता है / पडिलेहना नहीं करता है अथवा असावधानी से करता है / सुखार्थी होकर भिक्षा के लिये नहीं जाता है अथवा अनुपयोग पूर्वक भिक्षाचरी करता है। अनेषणीय आहार ग्रहण करता है। "मैंने क्या किया? मुझे क्या करना चाहिये। और मैं क्या क्या कर सकता हूँ" इत्यादि रूप शुभध्यान नहीं करता। साधुमंडली में बैठ कर भोजन नहीं करता, यदि करता है तो संयोजनादि मांडला के दोषों का सेवन करता है। बाहर से आकर नैषेधिकी आदि समाचारी नहीं करता तथा उपाश्रय से जाते समय आवश्यकादि समाचारी नहीं करता। गमनागमन में इरियावहिया का कायोत्सर्ग नहीं करता। बैठते और सोते समय भी जमीन पूंजने आदि की समाचारी का पालन नहीं करता / और “दोषों की सम्यक् आलोचना आदि करके प्रायश्चित्त ले लो" आदि गुरु के